भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क़दम तुम्हारे शुरू हुए हैं / हरिवंश प्रभात

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क़दम तुम्हारे शुरू हुए हैं, मेरी राह में पड़ने से।
मेरे सारे अमलतास के फूल बचे ना झड़ने से।

काँटें मेरे पाँवों के तुम अक्सर देते हो निकाल,
खोज रही है नज़र परायी, हम दोनों पर गड़ने से।

अब तो इसी मोहल्ले में मैं रह लूँगा जीवन भर,
आ गये हैं बाज़ सभी लोग यहाँ पर लड़ने से।

रात भयंकर बरसाती और नदी किनारे होटल है,
चलो मनाएँ हनीमून, अब लाभ नहीं है बिछड़ने से।

पाँव दबाना चाह रहे हो, यह तो बात ख़ुशी की है,
पर घुटना असमर्थ हुआ लाचार बहुत है मुड़ने से।

किरदारों को राहत है, बेबस का नाटक करने में,
कितने गर्दिश के तारे अब भाग रहे हैं जुड़ने से।

कब तक प्रेम पतंग उड़ेगी, इन विपरीत हवाओं में,
सागर में वह जल्द गिरेगी, कतराए जो उड़ने से।

अंतिम बार नमस्ते सबको है ‘प्रभात’ के जानिब से,
सूरज पर्वत पर जा पहुँचा, वक़्त बचा ना बुड़ने से।