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क़िस्सा-ए-दर्द / अज़ीज़ तमन्नाई

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चाँद ने मुस्कुरा कर कहा
दोस्तो
क़िस्सा-ए-दर्द छेड़े सर-ए-राह कौन
फिर भी तोर मुसिर थे
कि हम आज की शब सुनेंगे
वही अन-सुनी दास्ताँ
देर तक चाँद सोचा किया
दूर आफ़ाक़ की सम्त देखा किया
और तारों की आँखें छलकती रहीं
रात के दामन-ए-तर को
आहिस्ता आहिस्ता
लम्हों का ठंडा लहू
जज़्ब हो हो के रंगीन करता रहा
ना-गहाँ एक नादीदा ज़र्रीं रक़म
दस्त-ए-सीमीं बढ़ा और उफ़ुक़-ता-उफ़ुक़
एक जुम्बिश में खींचे हज़ारों करोड़ों तलाई ख़ुतूत
डूब कर रह गए थे सारे नुक़ूत
चश्म-ए-आफ़ाक़ से
अव्वलीं क़तरा-ए-दर्द टपका
किसी बर्ग-ए-नौ-ख़ेज़ पर
अक्स-ए-अंजाम रूख़्सार-ए-आग़ाज पर