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काकोलूकीयम / सुरेश सलिल

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(१)

पहाड़ पर जली थी कभी कविता की लालटेन
आयोवा पहुँची तो हो गई एअरोप्लेन
उसकी उड़ान देख सारे कवि हैरान
आज फिलिस्तीन में हैं तो कल है ताइवान

(२)

बहुत उदास हैं आजकल बहनें
भाई गया था कविता के जीवन में रहने
सामान की तलाश में वो हो गया खुद का क़ैदी
नाम था उसका शायद असद ज़ैदी

(३)

पीली छतरी वाली ने एफ़ आई आर दर्ज़ कराई
पाल गोमरा का स्कूटर देता नहीं दिखाई
सागर से जज कालोनी तक दबिश पुलिस ने डाली
लेकिन सब जगहों से लौटी दोनों हाथों ख़ाली
अख़बारी ख़बरों में आया आख़िर पहला नाम
पाल गोमरा ने लौटाया अकादमी ईनाम

(४)

भोपाल शहर में हैं भदभदा इलाका
लोग जिसे कहते हैं कवियों का नाका
दो पँक्तियों के बीच वहाँ नाकेदार रहता है
कभी बहुत बोलता था अब चुप चुप रहता है

(५)

विदिशा में रहता था एक ख़ैयाम
दो ही शगल थे उसके
कविता और छलकता जाम

मोबाइल बार उसके साथ साथ चलता था
दिन हो या रात, वो ढालता था ढलता था
ऐसा ढला ऐसा ढला कि सबके खड़े हो गए कान
और पट्ठे के गले पड़ गया शिखर सम्मान

(६)

समवाय से पहचान तक जो सिलसिला चला
उससे ही आगे चलके बना कविता का ज़िला
जनपद से इण्टरनेशनल तक राह गजब है
जिद कहिए भले, ये अशोक वाजपेई का ढब है
है साथ रजा की रज़ा सोने पे सुहागा
फिर सोचना ही क्यूँ भला, करता पीछा, क्या आगा !

(७)

सही नहीं जातीं जब बलात्कृता आहें
ब्रूनो की बेटियों की अनवरत कराहें
चिन्ता तब अपनों की है ये लाजिमी
कहाँ छिपा बैठा है जनता का आदमी !

(८)

साठोत्तरी सत्तरोत्तरी अस्सोत्तरी के पार
खेमों को तमगों को ठेंगे पर मार
एक कवि निर्विकार साधना में रत है
नाम आप बूझिए, वो सुरत निरन्तर है