भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कान उग आये कई / उर्मिलेश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फोन की घंटी बजी
धड़कन बढ़ी
ऐसा लगा,
देह में जैसे अचानक
कान उग आये कई I

थरथराते हाथ से
थामा रिसीवर
और फिर
कान तक लाये उसे फिर यूँ लगा,
एक छुअनों से भरा
इतिहास ज्यों फिर से जगा;
कस्बई मस्तिष्क में
छाने लगी फिर बम्बई I

एक `हैलो` क्या कहा तुमने
हमें ऐसा लगा
बहुत दिन के बाद
जैसे सप्तकों के स्वर सजे,
या कि सोनल मानसिंह के
पाँव के घुंघरू बजे;
बाँचने मन लग गया
फिर से बिहारी सतसई I