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कान / बुद्धदेब दासगुप्ता / कुणाल सिंह

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एक कान देखना चाहता है अपने जोड़ीदार दूसरे कान को
एक कान कहना चाहता है दूसरे कान से न जाने कितनी बातें ।
कभी मुलाक़ात नहीं होती दोनों की, बातें एक कान में बहुत गहरे धँसकर
दूसरे कान की गहराई से निकल पड़ती हैं और अन्ततः
हवाओं में घुल-मिल जाती हैं। दुख और शर्म से
कुबरे होते-होते एक दिन कान झड़ जाते हैं, गिर पड़ते हें रास्तों में कहीं। पृथ्वी पे
इस तरह शुरू होती है कानहीन मनुष्यों की प्रजाति।
आज एक कानहीन आदमी की एक कानहीन लड़की से शादी है,
पसरकर बैठे हैं देखो, उनके कानहीन दोस्त-यार
कानी उँगली डुबाकर दही खाते-खाते
न जाने कौन सी बात पे
हंस हंस कर दोहरे हुए जा रहे हें
रो रहे हें, सो रहे हें बिस्तरों पर ।

मूल बांग्ला से अनुवाद : कुणाल सिंह