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कापालिक अघोरी की तरह / विपिन चौधरी

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अपने वर्तमान की थोड़ी-बहुत भी ख़बर होती
तब शायद किसी काल-भैरव से
भविष्य का पता पूछने का साहस जुटाती
पर यहाँ भविष्य के साथ-साथ वर्तमान भी
घने कोहरे की गिरफ़्त में दिखा
पूरे ब्रह्मांड को हाज़िर-नाज़िर जान मैंने स्वीकार किया
कहीं से भी कुछ उगाहने के मामले में
सिफ़र हूँ मैं
मेरे कंधों पर अपनी ठोड़ी रख
जो ग़म रह-रह कर मुझे सालते रहे
ठेठ दुनियादारी से उनका दूर का नाता भी नहीं था
एक पारदर्शी लक्ष्मण-रेखा मुझे विरासत में मिली थी
जो ऐन वक़्त पर दुनिया में
शामिल होने से रोक देती मुझे
हर बार मैं
इस बिना रीढ़ की हड्डी वाली दुनिया की
लचीली पीठ पर चढ़ने से बच जाती
तब हर बार मुझे स्वामी विवेकानंद याद आए
जो दुनिया की ओर रुख करने लगे तो
गुरु परमहंस ने ठीक समय पर उनकी एक नस दबाई
और स्वामी दुनिया का रुख भूल गए
किन्हीं असरदार दुआओं की तासीर के चलते
चालू समय सीधे-सीधे मेरी आँखों में आँखें डालकर
बात करने की हिम्मत नहीं कर सका
दुनिया के साँचे में न ढल पाने का सुकून
सब सुकूनों पर भारी रहा
इन २०६ हड्डियों, और के अलावा
भीतर कुछ ऐसे बीज़ भी सिमटे रहे
जिन्हें अरमानों की उपजाऊ ज़मीन में
अंकुरित होने की भारी ललक थी
ताउम्र इन्हीं को पूरी आकृति देने के प्रयास में
अपनी ताक़त से बाहर निकलकर
ढेर सारी असफलताओं से लैस
ठीक भीगी रुई की तरह भारी होती गई
तमाम बुतपरस्ती को नकारते हुए
अपने ही बनाए द्वीप में अकेली,
अनिश्चित कामना की साधनाओं में लिप्त
उज़ालों से उलटी दिशा में चलती
मन-मस्तक पर धूनी रमाए
अनजानी मंजिल तलाशती
उन अँधेरों की टोह में भी भटकती रही
जहाँ जुगनू भी गाइड का काम करने से कतराते रहे
लाख कोशिशों के बाद
मन की उफनती नदी का रुख कोई मोड़ न ले सका
बहता रहा अविरल
तमाम तटबंध की सीमाओं को अस्वीकारते हुए
अपने ही उजाले में ख़ुद को रोशन करती
तन्हा, रात-बिरात उठकर तीन-चार पंक्तियाँ लिखकर
चैन की साँस लेकर लम्बी नींद में अलसाई
सीप, शंख, मोती, तारे, जुगनू, फाख़ता के साथ
किसी बंदरगाह को तराशती, तलाशती
शिव के प्यारे अघोरियों की तरह जटा-जूट
हर रोज़ एक क़दम शमशान की ओर धरती
किसी अनजाने-अनदेखे मोक्ष की उम्मीद में ।