भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कालदृष्टि / गिरिजाकुमार माथुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जन्म के
अरबों मनवन्तरों के सामने
दस हज़ार सभ्यता के वर्ष ये
धड़कता हुआ सिर्फ़ एक क्षण हैं
दो घड़ी
एक अधूरा दिन
घटते हैं मेरे भीतर धाराप्रवाह में
एक साथ अतीत और भविष्य
जो निरन्तर वर्तमान हैं
सिमटकर आ गए हें इस छोटे दियले में
ये तमाम युग
बीती शताब्दियाँ
खड़े हैं एक साथ
डिनोसॉर और न्यूयार्क
सन्नाते भुजंगी सौ गज़े दैत्य पक्षी
मोटी चंचु ग्रीव ताने
जम्बो जैटों की तरह
उड़न-व्हेलों के साथ-साथ
तीर की तरह तैरते निकल जाते हैं
चपटे कैटरपिलर नाग
और ध्वनि अधर में उठकर
तैरती रेखा सी मैगनेटिक ट्रेनें
बढ़ते हैं उलझे गुँथे
भुजंग फंगस बेलों से
गरारीदार सूँडों की तरह
रबड़ के होज़, केबिल
तारों के अनन्त सर्किट
तड़पकर गिरती हुई करोड़ों वोल्ट की गाज
अणुबम की अग्नि धूप छोड़ती हुई नई टार्च
भीष्म टार्च
नर और वानर
गुरीला और आदमी
राम और हनूमान
बुद्ध और महावीर
और सलीम चिश्ती
ईसा और गांधी
व्यास के सामने खुली है ‘वेस्टलैंड’
कपिल कर रहे हैं बहस
सांख्य दर्शन की मार्क्स से
लेनिन और चाणक्य
चार्वाक और माइकैवैली करते हैं
मंत्रणा
कार्डिनल रिच ल्यू से
सीज़र और एलेक्जेन्डर
करते हैं तारीफ़
बोनापार्ट के युद्ध कौशल की
जलती हुई स्वर्ण-लंका से याद
आ जाती है
ध्वस्त नाज़ी बर्लिन की
बढ़ती लाल सेना की
वासवदत्ता के साथ मार्लिन मनरो
डाइव लगाती है नग्न
तैराकी प्रतियोगिता मंे-
वाल्मीक और होमर
जरतुस्त और गीताकार
मीरा और सैफ़ो
भवभूति और यूरीपिडीस
हेलेन, सीता, द्रौपदी और प$नी81
बताती हैं एक-दूसरे की यंत्रणाएँ
और लेसर टेलेविज़न की गोष्ठी में
बैठा हूँ मैं
कालिदास और कीट्स और
शेक्सपियर के साथ-
मोनालिस बनते देखता है पाब्लो पिकासे
विंशी को स्टीम-एंजिन का डिज़ाइन मिल जाता है
हँसता है कोलम्बस के पालदार डगमग जहाज़ पर
नया पक्षीयान उड़ा देता है
राइट ब्रदर्स से चार सौ साल पहिले
विश्वामित्र छोड़ते हैं उपग्रह
थ्री-स्टेज त्रिशंकु रॉकेट
केनेडी अन्तरीप और रूसी कोस्मोड्रोम स्तब्ध हैं
देख रहे हैं कृत्रिम ब्रह्मांड रचना
वशिष्ठ और आइन्सटाइन
संपाति और गेगेरिन
इकेरस और नील आर्मस्ट्रोंग
वराहमिहिर समझ रहे हैं क्वासर की थियोरी
बर्नार्ड लौवेल के रेडियो दूरबीनों पर
भास्कर और न्यूटन
बनाते हैं केलकुलस
आइन्सटीन की इक्वेशन
लगाते हैं भृगु महाराज
तीर्थंकर का अनेकान्त
लेता है स्पैंगलर
कपिल करते हैं मार्क्स से अधूरी रही बात
छपते हैं एक ही पृष्ठ पर
ऋक के अनुष्टुप्
जरतुस्त के मंत्र वेदपाठ
कुरआन की आयतें
पढ़े जाते हैं एक साथ
ऊँची आवाज़ में प्रत्युष की अज़ान
और सामगान
और इंजील और जातक
एक ही पुस्तक के अंश हैं
गले मिलते हैं-
राम और रहीम
कृष्ण और हज़रत मुहम्मद
जरतुस्त और अगस्टीन
अब प्रमंथ और मंथ
खोज चुके हैं वैश्वानर
रचा है
अग्निचिन्ह स्वस्तिक
क्लाकवाइज़
जलती स्पायरल गेलेक्सी
दक्षिण भुज स्वस्तिक
जिसका है रूपाकार
उधर प्रोमीथियस के चुरा ली है दैवी आग
औपेनहाइमर के साथ
तोड़ लिया है वर्जित अणु-मेव
का रहस्य द्वार
पाव होम-शिखा
बन गई है भयावह मृत्यु-यंत्र
और प्रकाश का शब्द
अश्लील हो गया है-
सभी कुछ है एक साथ
इस धाराप्रवाह में
नहीं हैं अलग अलग
एक दूसरे के शत्रु
धर्म और नियम
संप्रदाय और सिद्धान्त
राष्ट्र और आदर्श
शत्रु-सत्ताओं डिब्बों में बन्द
नहीं रह सकता अब आदमी
नहीं रह सकते क़ैद करोड़ों परिवार
मन और शरीर
मरती हुई बीसवीं शती के
सीलबन्द मुँदे तहख़ानांे में-

क्या फ़र्क़ पड़ता है तुमको
हम खाएँ चाकलेट या कवियार
ज्वार के टिक्कड़
या फ्रेंच कुइसाइन के
ओर डी. आर
या सादे लंच पैकेट
या पहने लँगोटी या मिनि स्कर्ट या मिंककोट
या भूखों मर जाएँ
जैसे रोटी को तरस तरस
मरते हैं लाखों लोग
एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमरीका में
-यही तो होता आया है-
हम करते हैं क्रांतियाँ
बहाते हैं ख़ून अपने बेटों का
हरेक क्रांति की छाती पर
एक और अन्याय बैठ ही जाता है
यही तो होता आया है-
एक दीवार हम बनाते हैं अपने घर की
एक सुंदर तस्वीर आदमी की
एक बड़ी मूर्ति गढ़ते हैं
लेकिन पूरी होने से पहले
आ जाता है कोई एक वैताल
छीन ले जाता है उसे
बिठा जाता है उसे
बिठा जाता है उसकी जगह
एक घिनौनी बदसूरत शक्ल
एक नरभक्षी कैनीबाल
दो सूखी हड्डियों के बीच रखा एक खूँखार मुंड
मौत का निशान
एक बहरूपिया देवता
चालाक एक मसीहा
हूबहू नक़ल करता है हमारी आवाज़ों की
इच्छाओं, इरादों की
यही तो होता आया है-
मुझे नींद नहीं आती
हफ़्तों रातों मैं तड़पता हूँ,
मन में विस्फोट करती शोकान्त खुराफ़ातों से
ये तनाव, ये उलझन, घबराहट, बेचैनी
सत्ता के शिकंजों की
मेरी वैगस नर्व धड़कती है
तेज़ तेज़
काँपता है शरीर
दिल के रिद्म पर
ऐसा ही हुआ होगा दान्ते को
इन्फनों लिखते वक़्त
गेलिलियो गोगोल निराला को
अख्मतोवा, पास्तरनाक को
निर्वासित ड्बचैक को
आत्मदाही पेलाच को-
गोली मारे जाते वक़्त
रेवरेन्ड किंग को-
जब दुनिया कराहती हो
दबी पत्थरों के नीचे
चुप रहना भी बहुत बड़ी साज़िश
समझौते करना
संगीन अपराध है
-बताओ मुझे
क्या है सत्य
वह व्यक्ति का घोर अनाचारी सत्य
हद से गुज़रा
मर्यादा से बाहर
मुनाफ़े से मैथुन और मर्डर तक
स्वतंत्रता
विक्षिप्त आत्मघाती
वह नहीं है मेरा सत्य
वह श्रद्धा, नज़रबंद
दल का संप्रदायी सत्य
सिर्फ़ कर्मकांडी धर्म अर्थनीतियों का
उँगली गिना सत्य है
जिनके मेनुअल्स में लिखी ही नहीं
आदमी की प्रेरणा भरे
प्यारे भावों की परिभाषा
वह समूह का विकट सत्य
सिर्फ़ एक सर्वज्ञ, शक्तिमान
परम नेता का अधोसत्य है
जो देता है मुझे
ठप्पेदार ज्ञान
एक आप्त वाक्य
क्रांति वचन
एक चुसा शब्द
तोते की तरह दुहराने को
ओ मसीहा?
मुझे दो आदमी का एक और सत्य
एक बड़े प्यार का वह फ़लसफ़ा
एक मर्मशील सांस्कृतिक वाम धार
जो तुम्हारी हर क्रांति को
दे नई सार्थकता-
क्योंकि मैं हूँ पुरुष
और ये पृथ्वी मेरी प्रिया है
नीले नयनों वाली
स्पेस की कन्या
यह नहीं है गोल बर्रों का छत्ता
जो तुम बनाते आए हो
और बन्द करते आए हो मुझे
ओछे, सँकरे, दमघोंट खानों में
इतिहास की खराद पर चढ़ा
अनुभव विज्ञान
हर बार जब एक क़दम
आगे बढ़ जाता है
तुम ढोते रहते हो लाश
पिछली शताब्दियों की
अगली शताब्दी में
जब तुम्हारी सभ्यता
अछूत ग्रहलोकों पर उतरने को है तैयार
तुम्हारी व्यवस्थाएँ
अब भी क़िले बंद
मशाल युगों में हैं
ओ मसीहा
ये भूलो मत
तुम हो क्षणिक
सिर्फ़ वक़्ती
और मैं हूँ कालजयी
मैं मरूँगा नहीं
क्योंकि मुझे जीना है
तमाम अगली शताब्दियाँ
अपनी प्रिया को बनाना है
अभी और सुंदर
अभी और मोहक
अभी और सार्थक।