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किन मौसमों के यारों हम ख़्वाब देखते हैं / 'महताब' हैदर नक़वी

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किन मौसमों के यारों हम ख़्वाब देखते हैं
जंगल पहाड़ दरिया तालाब देखते हैं

इस आसमाँ से आगे इक और आसमाँ पर
महताब से जुदा इक महताब देखते हैं

कल जिस जगह पड़ा था पानी का काल हम पर
आज उस जगह लहू का सैलाब देखते हैं

उस गुल पे आ रहीं है सौ तरह की बहारें
हम भी हज़ार रंगों के ख़्वाब देखते हैं

दरिया हिसाब ओ हद में अपनी रवाँ दवाँ है
कुछ लोग हैं के इस में गिर्दाब देखते हैं

ऐ बे-हुनर सँभल कर चल राह-ए-शाएरी में
फ़न-ए-सुख़न के माहिर अहबाब देखते हैं