भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किरंतन / महामति

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं तो बिगडया विस्वथें बिछुडया, बाबा मेरे ढिग आओ मत कोई।
बेर-बेर बरजत हों रे बाबा, ना तो हम ज्यों बिगडेगा सोई॥

मैं लाज मत पत दई रे दुनीको, निलज होए भया न्यारा।
जो राखे कुल वेद मरजादा, सो जिन संग करो हमारा॥

लोक सकल दौडत दुनियाँ को, सो मैं जानके खोई।
मैं डारया घर जारया हँसते, सो लोक राखत घर रोई॥

देत दिखाई सो मैं चाहत नाहीं, जा रँग राची लोकाई।
मैं सब देखत हों ए भरमना, सो इनों सत कर पाई॥

मैं कँ दुनियाँ भई बावरी, ओ कहे बावरा मोही।
अब एक मेरे कहे कौन पतीजे, ए बोहोत झूठे क्यों होई॥

चितमें चेतन अंतरगत आपे, सकल में रह्या समाई।
अलख को घर याको कोई न लखे, जो ए बोहोत करें चतुराई॥

सतगुरु संगे मैं ए घर पाया, दिया पारब्रह्म देखाई।
'महामत' कहें मैं या विध बिगड्या, तुम जिन बिगडो भाई॥

खोज थके सब खेल खसम री,
मनहींमें मन उरझाना, होत न काँ गम री॥

मनही बाँधे मनही खोले, मन तम मन उजास।
ए खेल सकल है मनका, मन नेहेचल मनहीको नास॥

मन उपजावे मनही पाले, मनको मन करे संघार।
पाँच तत्व इंद्री गुन तीनों, मन निरगुन निराकार॥

मन ही नीला मनही पीला, स्याम सेत सब मन।
छोटा बडा मन भारी हलका, मनही जड मनही चेतन॥

मनही मैला मनही निरमल, मन खारा तीखा मन मीठा।
ए ही मन सबन को देखे, मनको किनँ न दीठा॥

सब मनमें ना कछु मन में, खाली मन मन ही में ब्रह्म।
'महामत' मनको सोई देखे, जिन दृष्टें खुद खसम॥