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किराए का मकान / पवन चौहान

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मैं किराए का मकान हूँ
मैंने कईयों को आश्रय दिया
कुछ पाने की चाह में
अपनी तरह सजाया संवारा सबने
कठपुतली बना हर हाथ में
मैंने देखा है अपने अंदर
प्रेम क्रीड़ा में डूबे बदन
वात्सल्य की षीतल धारा
टूटते बनते रिश्ते
खुशी से चहकते गाल
मंगलकामना को उठते हाथ
मैंने मकानों का जंगल भी देखा है बनते
अपने आस-पास
सिमटती तंग गली के दूसरी तरफ
शड़यंत्र का बुनते जाल
धन अभाव में तड़पता बिमार बूढ़ा षरीर
मैंने देखा है किराया न दे पाने पर
उठते बोरिया बिस्तर भी
अरमानों का गला घुटते
खंडित होते सपनों को
मैंने बहुत कुछ देखा, सुना, महसूस किया
ढेर सारा अनुभव पाया
पर अफसोस...
मैं कभी घर नहीं बन पाया