भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किसी बच्चे को कभी न छीने काल / काएसिन कुलिएव / सुधीर सक्सेना
Kavita Kosh से
अपने जीवन में मैंने देखा है सब कुछ
सारे विषाद भरे अनुभव हैं मेरे खाते में
तमाम लौकिक प्रार्थनाओं में मैं गुहारता हूँ, बस, एक
किसी बच्चे को कभी न छीने काल ।
मैं जानता हूँ कि सम्भव नहीं कि मौत
फेंके न किसी पर फन्दा अपना, फिर भी
थकूँगा नहीं, मैं गुहारता रहूँगा अनथक
किसी बच्चे को कभी न छीने काल ।
गाछ, जो शरद में स्वप्न नहीं देखता वसन्त का
फूल नहीं खिलते उसकी शाख पर वसन्त में
गर स्वप्न नहीं देखेंगे हम कामनाओं के
भला, कैसे होंगी चरितार्थ वह भविष्य में
मैं ग्रहण करता हूँ जीवन को यथावत,
गो अन्धा नहीं हूँ मैं, न ही
मेरी आँखों पर है गुलाबी चश्मा, मगर
गुहारूँगा मैं हज़ारवीं बार
किसी बच्चे को कभी न छीने काल ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधीर सक्सेना