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किसी सैलाब के आने की आशंका से डरता हूँ / डी. एम. मिश्र

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किसी सैलाब के आने की आशंका से डरता हूँ
किले की नींव हिल जाये न बारंबार कहता हूँ

किसी की भी दमन की नीतियाँ चलतीं नहीं ज़्यादा
ये चर्चा आम करता हूँ तो लोगों को खटकता हूँ

मेरे बच्चे बताते हैं ज़माना है बहुत आगे
इसे सुन-सुन के थेाड़ा सा कभी मैं भी बदलता हूँ

उन्हें कैसे बताऊँ ये नज़र बेशक पुरानी पर
किसी की खूबसूरत सादगी पर मैं भी मरता हूँ

मेरा गर आशियां जलता तो दोबारा बना लेता
मगर ये आग कैसी जिसमें मैं दिन रात जलता हूँ

उदासी से भरी वैसे तो मेरी शाम होती है
मगर उम्मीद लेकर रोज़ ही घर से निकलता हूँ