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किसे पता था भला / हब्बा ख़ातून / सुरेश सलिल

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किसे पता था, भला, कहाँ मैं जन्म लूँगी
कहाँ जाऊँगी दुल्हन बनकर किसे पता था, भला !

दूऽऽऽर से एक दिन किसी ने मुझे देखा
भागी मैं लैयन-पैयन घर को, मैया री !
फिर लेकिन बाहर आई, ख़ुदा जाने क्यूँ?

कहाँ जाऊँगी दुल्हन बनकर किसे पता था, भला !

सोचा, माँ के आगे दिल की गाँठ खोलूँगी
फिर बदलना पड़ा इरादा, डर से इस तोहमत के
कि नए नए अँखुआए प्रतीति के पौधे को
बढ़ने, बडरने और फूलने नहीं दिया मैंने ।

कहाँ जाऊँगी दुल्हन बनकर किसे पता था, भला !

फिर एक दिन पीले कर दिए गए मेरे हाथ आख़िरका /
शहर में पली-पुसी लड़की एक गाँव में आ गई
क़िस्मत के लेखे को कैसे मैं बदल पाती !

कहाँ जाऊँगी दुल्हन बनकर किसे पता था, भला !

एक दिन फिर घर घसीट लाई मेरी चाहत
जहाँ मेरी ख़ुशक़िस्मत भावज ने ताना मारा
कि जनमते ही क्यूँ न मर गई तू, कुलच्छिनी !

कहाँ जाऊँगी दुल्हन बनकर किसे पता था, भला !

मूल कश्मीरी से अनुवाद : सुरेश सलिल