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किस सदी में जी रहा हूँ / सुदर्शन वशिष्ठ

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मैं इक्कीसवीं सदी में नहीं जी रहा हूँ
मैं हूँ कहीं ग्यारहवीं या दसवीं सदी में
या इससे भी पहले
किसी सामन्ती युग में।

दरबारों में पढ़ता हूँ कविताएं
प्रशस्तियां लिखता हूँ
रचता हूँ कसीदे।

बीज मंत्र गायन करता मैं
प्रवेश करता हूँ दरबार में-
जिन्होंने शत-शत नरमेध किये
की कई रथ यात्राएं
जिन्होंने जीतीं दसों दिशाएं
जिनके बाहुबल से कांपते वोटर
जो बार-बार एम.एल,ए. एम.पी.
सांसद मंत्री बने
हे पुरुष श्रेष्ठ नेतावर
आपकी जय हो!
आपको शत-शत प्रणाम है।
महलों में रहते हैं मंत्री और सांसद
सेनापित बाहर खड़े रहते हैं
जो कभी जोखिम नहीं उठाते
जिनकी तलवारें सजावट की वस्तु हैं
फिर भी नहीं घुस पाती प्रजा
महलों या दरबारों में
आप भी नहीं जा सकते
यदि नहीं चारण या भाट।

ओढ़ता हूँ
जय-जयकारनामी चादर
पताकाओं का बना हार
रचता हूँ स्तुतिगान
करता हूँ यशोगान
घुस जाता हूँ दरबार में सिंहासन तक
किनारे खड़ा हो
सुनाता हूँ नवरचित रचनाएं।

नहीं पहचानते मुझे इक्कीसवीं सदी के लोग
बनते हैं अजनबी
जानते हैं यह इस युग का आदमी नहीं
फिर भी बड़ी जरूरत है आज की
जानते हैं वे भी
बीज तो खत्म हो गया
मंत्र ही बचा है
गण तो खत्म हो गया
तंत्र ही बचा है।