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किस सम्त जा रहा है ज़माना न जाए / मज़हर इमाम

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किस सम्त जा रहा है ज़माना न जाए
उकता गए हैं लोग फ़साना कहा न जाए

अपना मकाँ उजाड़ के सहराओं की तरफ
वो शख़्स क्यूँ हुआ है रवाना कहा न जाए

लम्हो की तरह गुज़री हैं सदियाँ तो बार-हा
इक पल बना है ज़माना कहा न जाए

शोले बने हैं लफ़्ज़ तो काँटा हुई ज़बाँ
अब क्या करें जो तेरा फ़साना कहा न जाए

है आँख उफ़ुक़ पे बर्फ़ की सूरत जीम हुई
शब होगी कब सहर का निशाना कहा न जाए

कहने को से ग़ज़ल है मगर क्या ग़ज़ल जिसे
नौहा कहा न जाए तराना कहा न जाए