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किस से मन की बात कहूँ मैं? / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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किस से मन की बात कहूँ मैं?

सुनने को तैयार कौन है
फुरसत भी किसको इतनी है;
देख रहा हूँ मैं, सब को ही
पड़ी हुई अपनी अपनी है।

बन कर मूक धरा-सा कब तक
बोलो वज्राघात सहूँ मैं?॥1॥

तट बन कर जिस सरिता को मैंने
सरिता का रूप दिया है।
उसकी ही धारा ने मेरे
उर में गहरा घाव किया है।

बन कर मूक कूल-सा कब तक
बोलो उसके साथ रहूँ मैं?॥2॥

दिन ढलने पर प्रकृति मूक हो
मानारात-रात भर रोती।
पर उसकी अँधियारी रातों
की भी कुछ सीमाएं होतीं।

बन कर मूक अश्रु-सा कब तक
अविरल यों दिन-रात बहू मैं?॥3॥

3.9.56