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कीर / अज्ञेय

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 प्रच्छन्न गगन का वक्ष चीर जा रहा अकेला उड़ा कीर,
जीवन से मानो कम्प-युक्त आरक्त धार का तीक्ष्ण तीर!
प्रकटित कर उर की अमिट साध, पर कर जीवन की गति अबाध,
कृषि-हरित रंग में दृश्यमान उत्क्षिप्त अवनि का प्राण-ह्लाद!

आरक्त कीर का चंचु, क्योंकि आरक्त सदा ही ह्लाद-गान,
आरक्त कंठ-रेखा-कि ह्लाद का दुर्निवार प्राणावसान!
कैसी बिखरी वह मूक पीर, उल्लसित हुआ कैसा समीर!
प्रच्छन्न गगन का वक्ष चीर जा रहा अकेला उड़ा कीर!

लाहौर किला, 8 मार्च, 1934