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कुटी चली परदेस कमाने / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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कुटी चली परदेस कमाने

कुटी चली परदेस कमाने
        घर के बैल बिकाने ।
चमक-दमक में भूल गई है,
       अपने ताने बाने ।

राड-बल्ब के आगे फीके
        दीपक के उजियारे ।
काट रहे हैं फ़ुटपाथों पर
        अपने दिन बेचारे ।

कोलतार सड़कों पर चिड़िया
        ढूँढ रही है दाने ।।

एक-एक रोटी के बदले
        सौ-सौ धक्के खाए,
किन्तु सुबह के भूले पंछी
        लौट नहीं घर आए।

काली तुलसी नागफनी के
        बैठी है पैताने ।।

गोदामों के लिए बहाया
        अपना ख़ून-पसीना ।
तन पर चमड़ी बची न बाक़ी
        ऐसा भी क्या जीना ।

छाँव बरगदी राजनगर में
        आई गाँव बसाने ।।