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कुण्डलिया-1 / बाबा बैद्यनाथ झा

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करता हूँ मैं प्रार्थना, सरस्वती की नित्य।
भर देती माँ ही सदा, छंदों में लालित्य॥
छंदों में लालित्य, वही हर शब्द बताती।
आता जब भटकाव, सदा सन्मार्ग दिखाती॥
कह बाबा कविराय, कभी मैं दम्भ न भरता।
बनकर मात्र निमित्त, नित्य मैं लेखन करता॥

कोरोना को देखकर, सोये भोलेनाथ।
भक्तों को तो चाहिए, अब उनका ही साथ॥
अब उनका ही साथ, बडा़ ही दुर्दिन आया।
पूरा जग है त्रस्त, बहुत सबको तड़पाया॥
जगिए शंकर आप, देखिए सबका रोना।
खोलें आप त्रिनेत्र, जले जिससे कोरोना॥

करती हर सौभाग्यिनी, वटसावित्री पर्व।
दीर्घ आयु पति को मिले, जिस पर पुनि हो गर्व॥
जिस पर पुनि हो गर्व, करे श्रद्धा से पूजा।
पति ही हैं सर्वस्व, नहीं उनके सम दूजा।
सत्यवान को पूज, डालियाँ नारी भरती।
वट में धागे बान्ध, व्रती फिर पूजन करती॥

करता श्रद्धा से नमन, भारत अपने आप।
हुए महाराणा वही, जो थे सिंह प्रताप॥
जो थे सिंह प्रताप, उन्हें प्रिय थी निज माटी।
देशभक्त को याद, अभी भी हल्दीघाटी॥
दुश्मन का संहार, किये बिन वीर न मरता।
इसीलिए यह देश, नमन उनको है करता॥

खाकर रोटी घास की, रहे सदा आजाद।
अकबर था करने लगा, अपनी नानी याद॥
अपनी नानी याद, सिंह ने हार न मानी।
थे वे वीर प्रताप, अमर है आज कहानी॥
गर्वित पूरा देश, वीर ऐसे को पाकर।
करते थे जो युद्ध, घास की रोटी खाकर॥

गरमी में सब खाइए, उत्तम फल तरबूज।
उसके तो समकक्ष है, एकमात्र खरबूज॥
एकमात्र खरबूज, उष्णता दूर भगाता।
सात्विक है यह भोज्य, भाव अति शुद्ध जगाता॥
मन हो जाता शान्त, क्रोध में आती नरमी।
खाएँ हम सब नित्य, घटेगी इससे गरमी॥

पाना है सम्मान तो, रखें श्रेष्ठ आचार।
सुनें बात विपरीत जब, नहीं करें स्वीकार।
नहीं करें स्वीकार, भले हो कोई अपना।
करे घृणित जो कार्य, बने यश उसका सपना॥
सारे उत्तम कार्य, पूर्ण कर जग से जाना।
जो ऐसा ले ठान, उसे है सबकुछ पाना॥