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कुरुक्षेत्र / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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यही है कुरूक्षेत्र विस्तार,
काल का मुख विकराल कराल,
रक्त से स्नात समग्र विशेष
रक्तपायी-सा विषधर ब्याल।

इसी ने माँ के अंचल लूट
जलाये सिन्दूरी सुकुमार,
रक्त का शुष्क मरूस्थल हाय!
पी गया यौवन की रसधार।

यहीं पर रणचण्डी ने झूम
मृत्यु के साथ किया था रास,
याद कर जिसकी अब तक हाय!
प्रकम्पित होता है इतिहास।

अस्त्र-शस्त्रों का रक्तिम खेल
देख वीरों का शौर्य प्रताप-
राजवंशों के बुझते दीप,
उजड़ते जीवन बढ़ते पाप।

धधकते हुए रक्त के साथ
खड्ग का यौवन झुलता खूब,
पनकर शोणित धार अपार
हुई अरूणाम हरित कुल दूब।
व्यग्र हो सरस्वती की धार
मौन हो गई भूमिगत हाय!
बचा जीवन को सकी न रंच
हो गयी सकल भाँति निरूपाय

यही है वह धरती दिग्भ्रान्त
बुद्धि के कर देकर तलवार,
कटाती रही शीश पर शीश
रक्त में करती रही विहार।

युयत्सा की जननी साहृाद
जगा देती विद्वेष अनन्त,
पन कर उष्ण रक्त की धार
विहँसकर करती जीवन अन्त।

कराया इसने जगत प्रसिद्ध
'महाभारत' का भीषण युद्ध,
मिटाये कुल के कुल संभ्रान्त
हुए अपनों से अपने क्रुद्ध।

स्वयं मैं, द्रोण विद्रुर धर्मज्ञ
नीति के ज्ञाता न्याय प्रवीण,
युद्ध का ज्वार न पाये रोक
मिट गये सारे धर्म धुरीण ं

बढ़ी कटुता फिर कभी घटी न
मनाकर हार गये यदुवीर,
हो गये हाय! विवश निरूपाय
मृत्यु से घिरकर लाखों वीर।

बज उठा कुरूक्षेत्र में शंख
कर उठे धनुष घोर टंकार,
बाण से पूर्ण हुए तूणीर
जग उठी फिर प्यासी जलवार।

धरा के धधक उठे सब अंग
युद्ध की ज्वालाओं के बीच,
कलेजा मुँह को आता, दंख
विवश अपने दृग लेती मींच।

सुलगती देख मनुजता बेल
नयन ऋतुपति के बने प्रपात।
हो चुकी धर्म ज्योति छविहीन
सहे कब तक अधर्म के घात?

खड़ा मैं सघन रणस्थल मध्य
युद्ध के दशम दिवस साभार,
पौत्र वध का संकल्प-विकल्प
हृदय में करता घोर प्रहार।

हाय! अपने शिशुओं के शीश
किस तरह काट सकेंगे बाण?
उन्हीं पर कैसे करूँ प्रहार
दिया निशि दिवस जिन्हें सन्त्राण?

नियति! तू भी है कितनी क्रूर
कराये कैसे-कैसे कर्म
धर्म है कभी कराया और
कराया तूने कभी अधर्म।

चाह तू, वही करेगा जीव
समझ पाया है तुझको कौन?
कर्म में मेरे क्या है और
बता दे वह भी, क्यों है मौन?

मोह से चिपका रहा सदैव
भार रक्षा का सिर पर धार
रहा अपनत्व प्रियत्व विशेष
पाण्डु पुत्रों के प्रति समुदार।

सदा संगति अधर्म की हाय!
रही करती विवेक को क्षीण,
जानकर भी मैं था अनजान
दे सका उचित न उनको नीड़।

हाय तृष्णे! तूने सब धर्म
धूल में मिला दिया, स्वच्छन्द-
प्रगति ने तेरी किया अनर्थ,
अहर्निष कर मुझको मतिमन्द।

राजकुल रक्षण धर्म विशेष
रहा उर-मन्दिर में अविराम,
न्याय से वंचित रहा सदैव
घटाया तैतिक बोध अकाम।

आज फिर भी मैं लेकर शस्त्र
खड़ा हूँ मर्यादा को भूल,
सींचता रहा जिसे दृग मीच
जलाने को उद्यत वह मूल।

जहाँ से सका न कोई लौट
खड़ा हूँ अब मैं ऐसे छोर,
इधर जाऊँ तो संकट घोर
उधर जाऊँ तो संकट घोर। "

" अरे हो सावधान रणधीर!
कर रहा चिन्तन क्योंकर व्यर्थ?
काल हूँ तेरा मुझको देख
वही मैं अम्बा हुई समर्थ।

तुम्हारा चिन्तन दुविधापूर्ण
करूँगी मैं पलभर में क्षार,
मृत्यु का विस्तृत शीतल अंक
तुम्हारा यही शेष अधिकार।

व्यक्त कर लो सब अन्तिम भाव
हृदय में रहे न कुछ भी शेष।
मिटा लो दुःख-दाह-दुर्भाव,
द्वेष से जन्मे क्लेश विशेष।

नष्ट कर तेरे उर के दाह
भरूँगी अपने उर में शान्ति।
हो सकेगी अब शीतल शीघ््रा
धधकती मेरे उर की क्रान्ति।

करूँगी हल्का सब मैं आज
कई जन्मों का पीड़ा-भार,
पूर्ण कर लूँगी निज प्रतिशोध
बाण कर तेरे उर के पार।

नष्ट कर मेरा जीवन हाय!
मिली है तुम्हें कभी क्या शान्ति?
खिसकती रही रेत-सी उम्र
त्रासती नैतिकता की कान्ति।

" कौन तुम मृदुभाषी सुकुमार
शिखण्डी अम्बा के प्रतिरूप,
खड़े हो कुरूक्षेत्र के मध्य
नहीं है जो तेरे अनुरूप।

अरे! यह वीरों का रणक्षेत्र
शिखण्डी! निकल यहाँ से भाग।
यहाँ सावन की कहाँ फुहार
बरसाती दग्ध मृत्यु की आग।

यहाँ पर वीरों का सम्मान
अस्त्र-शस्त्रों से करते वीर।
रक्त की धाराओं में डूब
निकलते प्राण हृदय को चीर।

अभी शायद तुझमें प्रतिशोध
शेष है दो जन्मों के बाद,
याद है मुझको भी सब दृश्य
तुझे भी अब तक सब कुछ याद।

काल की धारा को सब सौंप
हो सका हृदय न अब तक मुक्त;
तुम्हारा हो या मेरा मौन
अग्नि की ज्वालाओं से युक्त।

देख तेरा संकल्प अटूट
प्रतिज्ञा है मेरी नत भाल,
धन्य तू धन्य शिखण्डी! धन्य
हाथ तेरे है मेरा काल।

कर चुका हूँ मैं प्रण सविवेक
दीन अबला निःशस्त्र समक्ष,
नहीं लूँगा मैं कर में शस्त्र
मिटा दे भले मुझे प्रतिपक्ष।

चलाओ चाहे जितने तीर
खुला है मेरे उर का द्वार,
भेदकर मेरा कवच अभेद
करो खण्डित साँसों का हार।

चाहता मैं भी हो अब पूर्ण
तुम्हारा संकल्पित प्रतिशोध।
पूर्ण हो जाये जीवन युद्ध
सहा जीवनभर घोर विरोध।

उपेक्षा अपमानों के रत्न
सहेजे कोष हृदय का कक्ष,
रहा मर्यादा से आबद्ध
दिखाता किसके हाय! समक्ष?

रही उर-अन्तर जलती आग
बुझी तिलभर न कभी दिन-रैन,
उम्रभर छायी रही अशान्ति
पा सका कभी न पलभर चैन।

हो गयी जीवन इच्छा क्षीण
ढो रहा फिर भी अब तक देह,
सूखकर भी न मिट सका हाय!
हृदय से चिपका मेरे नेह।

शिखण्डी! तुझे देखकर आज
जगी है मेरे मन में आस,
धरा का अविजित नर कंकाल,
विजित हो पायेगा अवकाश,

क्योंकि है वीर न ऐसा एक
कर सके जो मेरा संहार,
प्राप्त वर इच्छा-मुत्यु विशेष
कवच मेरा जीवन आधार।

मिल सका मुझे न कोई वीर
यही है मुझको अब तक खेद,
तीर हैं बस अर्जुन के तीक्ष्ण
कवच जो मेरा सकते भेद।

तुम्हारे दुर्बल कोमल तीर
व्यर्थ हैं सकल हाय! निरूपाय,
निभाएँगे पर अपना धर्म
करेंगे मेरा मरण उपाय। "

आ गया अर्जुन का रथ तीव्र
मानसिक द्वन्द्वों को कर भंग,
शिखण्डी को आगे कर शीघ्र
चल पड़ा द्वारकेश के संग।

शिखण्डी का सोनल रथ भव्य
श्वेत अश्वों से अति छविमान,
दुशाला रेशम का सुकुमार
खड़ा ओढ़े रथ पर द्युतिमान।

कवच से हीन रथी को देख
भीष्म ने सोचा यह क्या चाल?
शिखण्डी सबसे आगे आज
आ गया शायद मेरा काल।

अरे! यह तो नारी है पूर्ण
और नारी से करना युद्ध
आचरण ऐसा करना हाय!
धर्म के मेरे घोर विरूद्ध।

आह मैं कैसे करूँ प्रहार
छुअन जिसकी है अब तक याद,
ग्ूाँजते रहते हैं वे शब्द
हृदय में बने अखण्ड निनाद।

किया था मुझको लज्जित घोर
किन्तु मैं बना रहा निर्लज्ज,
आज भी अस्त्र-शस्त्र रथ पास
खड़ा है फिर से वही सलज्ज। "

भीष्म के लिए शिखण्डी
वीर नहीं है नारी है सुकुमार,
गिर गया प्रत्यंचा से बाण
देखकर हृदय हुआ साभार।

रह गये दृग अनिमेष अवाक्
शब्द की सीमाओं से दूर
बहुत पलटे अतीत के पृष्ठ
दृश्य देखे असंख्य भरपूर।

" शिखण्डी! तूने किये प्रहार
याद के तीरों से भरपूर,
तीर आये हो लेकर तीर
वेष से तो लगते हो शूर। "

शिखण्डी करने लगा प्रहार
पितामह को कर अपना लक्ष्य,
किया जिसने भक्षण भरपूर
बन गया आज वही है भक्ष्य।

पितामह के संरक्षित अंग
भेद पाया न एक भी तीर।
धनंजय ने असंख्य शर मार
जगा दी अंग-अंग में पीर।

भीष्म शरबिद्ध हुए सर्वांग
घोर पश्चात्तापों के बीच,
वेदनाओं के संकुल मध्य
लिये थे क्षणभर को दृग मींच।

पितामह शरशय्या पर आज
गिरे होकर अधीर व्रणवन्त,
प्रतीक्षित अम्बा का प्रतिशोध
पूर्ण हो गया कि युग का अन्त।

आज अम्बा के उर में शान्ति
का उठी फिर से नूतन रास,
एक क्षण अधरों पर कर नृत्य
खो गया कहाँ न जाने हास?

साध मन की तो कर ली पूर्ण
किन्तु क्या यही लक्ष्य था मूल?
मूल को अपने क्योंकर भूल
किये सब कर्म धर्म प्रमिकूल।

स्वार्थ की सिद्धि हेतु दिन-रात
गँवाए हीरक जन्म अमोल।
न जागी आत्मोत्थानिक दृष्टि
दिया किसने मन में विष घोल?

धर्म! यह कैसा अक्षय द्वेष
रहा मन में भरता सन्ताप।
कर सके क्योंकर नहीं सचेत
क्षमा बन उर-अन्तर में आप?

युद्ध की शक्ति प्राप्त की किन्तु
क्षमा का बल न पा सका रंच;
वनों में भटका सहकर कष्ट
रचे मन के अनुकूल प्रपंच।

प्राण में बनकर अभिनव ज्योति
जगाओ ज्ञान-भक्ति-सत्कर्म,
आ गया हूँ मैं तेरे द्वार
क्षमा करना हे मेरे धर्म!