भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

केहि समुझावौ सब जग अन्धा / कबीर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

केहि समुझावौ सब जग अन्धा ॥



इक दुइ होयॅं उन्हैं समुझावौं,

सबहि भुलाने पेटके धन्धा ।

पानी घोड पवन असवरवा,

ढरकि परै जस ओसक बुन्दा ॥ १॥



गहिरी नदी अगम बहै धरवा,

खेवन- हार के पडिगा फन्दा ।

घर की वस्तु नजर नहि आवत,

दियना बारिके ढूँढत अन्धा ॥ २॥



लागी आगि सबै बन जरिगा,

बिन गुरुज्ञान भटकिगा बन्दा ।

कहै कबीर सुनो भाई साधो,

जाय लिङ्गोटी झारि के बन्दा ॥ ३॥