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कैसे नाथ जुटा पाऊँगा राम-मिलन का ख्वाब / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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मुझ नारकी जीव की सारी ही जिन्दगी खराब।
कैसे नाथ जुटा पाऊँगा राम-मिलन का ख्वाब।।

दुनिया को परवाह न मेरी हमीं जोड़ते नाते।
विषय-भोग को हमीं चाहते वे हमको ठुकराते।
संचित किया युगों से उधका बड़ा माल-असबाब-
कैसे नाथ जुटा पाऊँगा राम-मिलन का ख्वाब।।1।।

नश्वर जग की मृग-मरीचिका में दुख पाया भटका।
दुबिधा के त्रिशूल पर मेरा मन त्रिशंकु-सा अटका।
प्राण ले रहा मोह-निशाचर गला हमारा दाब-
कैसे नाथ जुटा पाऊँगा राम-मिलन का ख्वाब।।2।।

क्षण में उठ-उठ मिट जाती उस सुधि का कौन भरोसा।
मैं हूँ कितना भाग्यहीन छिन जाता थाल परोसा।
रोगी के मरने पर ही क्या दोगे दाब जनाब-
कैसे नाथ जुटा पाऊँगा राम-मिलन का ख्वाब।।3।।

क्या प्यासे ही रह जायेंगे प्रभु अरमान हमारे।
क्यों न जला देते हो उर में निज सुधि के अंगारे।
प्रेम-सुधा दो बहुत पी चुका माया-मोह शराब-
कैसे नाथ जुटा पाऊँगा राम-मिलन का ख्वाब।।4।।

पाप हमारे मारे जायें तेरी करूणा जीते।
अब भी हमें सम्हालो प्रभु जो दिन बीते सो बीते।
चाहो तो ‘पंकिल’ काँटे में भी खिल जाय गुलाब-
कैसे नाथ जुटा पाऊँगा राम-मिलन का ख्वाब।।3।।