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कोशी के तीरेॅ-तीरेॅ / भाग 10 / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय / अमरेन्द्र

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ठीक ऐसा ही मेरा गाँव
माता कोशी के गाल पर
जैसे एक छोटा-सा
तिल का काला चिह्न
हँसती है कोशी माँ
तो तिल-चिह्न लुप्त हो जाता है
नहीं हँसती है
तो चिह्न दिखता है
वहीं बैठकर
मैं देखता हूँ
माता कोशी को
चरण से लेकर शीष तक
एकदम उदास है माँ कौशिकी
एकदम क्लान्त है माँ कौशिकी
जैसे कितने-कितने
सपने खो गये हों

कितने-कितने
अपने ही बेटों को
अकाल मृत्यु-मुख में जाते देख
बदहवास हो गई है माँ कौशिकी
केश बिखरे हुये
आँचल पसरा हुआ
धूल-धूसरित
आँखों से चुवे आँसू
गालों पर सूखे
आँखांे में न ज्योति
न काजल
श्याम पड़ गई है माता
जैसे आँखों में काजल लगाने की जगह
चेहरे पर लीप गई हो
यहाँ-वहाँ कालिख
सच कहता हूँ, हे कोशी माँ
तुम्हारी यह हालत देखकर
बहुत व्याकुल है मन
व्याकुल ही नहीं
जाने किस आशंका से
क्षण-क्षण काँपता रहता है मन
अगर कहीं
ऐसा अनिष्ट हो ही जाय
टूट ही जाय
तुम्हारी बाँहों से बंधे
बाजूबन्द
और तुम्हारी जलराशिा उमड़ ही पड़े
तब क्या होगा
क्या तब फिर से आयेगा
वही मीन
अपने सींग से बाँधने के लिए

मनु-पुत्र की नाव को
बच पायेंगे ये मनु-पुत्र
सोचते ही
मन विचलित हो उठता है
कहाँ से आयेगा वह मीन
अब तो हे कोशी माँ
तुम्हारे पुत्रों को
नहीं कहीं दिखता है
वह खमैन
वह कटैया
वह स्वर्ण खैरका
वह छेंगरास, कोंधरी, करसी
वह झाझड़, राजबम और देसारी
जब गंगा के गोड़ों में ही
बांध की बेड़ी पड़ गई है
तब हे माता
कहाँ से तुम्हारे गले में
लटकेगा हिलसा का हार।

बहुत उदास है
माता कोशी
चारों ओर पसरा हुआ है
उदास पतझड़ का हाहाकार
खड़खड़ाते वृक्ष
हवा और पानी
बड़बड़ाती भोर और साँझ
भटकते दिन
रोती रातें
जलती सौगातें
कहीं कुछ नहीं दिखाता है
किसी वृक्ष पर

वसन्त के लौट आने का चिह्न
कहीं कोई सिहरन नहीं
किसी डाली या किसी पत्ते में ही
क्या उगेगा भी
कभी इसमें
कोई कोंपल
कोई फूल
शीशम तक सन्नाटे में है
महुआ अब नहीं मदोन्मत होता
अपने ही माते फूलों से
बाँस-वन नहीं बजाते
कहीं भी कान्हा वाली बाँसुरी
हवा के छेड़ते ही
ऐसे में
डैने फैलाये हुए जो आते थे
दूर-दराज देशों से
झुण्ड-के-झुण्ड पंक्तिबद्ध हो
लाल-हरे-पीले
सफेद रंग के
मन मोहने वाले पक्षी-समूह
इन्होंने भी धीरे-धीरे
आना बन्द कर दिया है
कौशिकी की बची हुई झाड़ी में
छिप कर
कसाइयों का दल बैठ गया है
हाथों में बन्दूक-तीर
और गुलेल लिए
भयभीत हैं पक्षी
सुनशान है पोखर और सरोवर
नदी के छाड़न पर
जम गया है काई-कीचड़
चारो ओर ही जहरीली गंध
बहुत उदास है माता कौशिकी
कोशी के किनारे-किनारे
मैंने देखा है
चक्कर काटती, बदहवास
कौशिकी माता को
अकेली गाय के पीछे लगे
हजारों-हजार कसाइयों को।