भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोशी के तीरेॅ-तीरेॅ / भाग 1 / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे कोशी माँ
तुम्हारा नैहर है
यह उत्तरांग
जब नहीं था
कोई हिमालय
नहीं था तिब्बत का पठार
नहीं था एवरेस्ट
और नहीं था
कहीं भी कंचनजंघा की
दूर-दूर तक फैली हुयी
गठीली बाहें
तब भी हे कोशी माँ
तुम्हारा नैहर रहा
यहाँ से वहाँ तक
यानी गंगा के छोरों को छूते
मोरंग के पार
तुम अचेत खेलती रही
कोस-कोस भर के
अपने आँगन में
कि अनचोके
तुम्हारे रूप से
मोहित हो कर
एक कोई महाबली
निवेदन कर बैठा
तुम्हारे सम्मुख
”हे अपरूप सुन्दरी
तुम्हारा रूप
और तुम्हारी शक्ति देख कर
मैं मुग्ध हूँ
मैं हूँ
राक्षस-जाति का महाबली
ऐसा कोई नहीं है
जो मुझसे पराजित नहीं
लेकिन आज
मैं अपने को
तुम्हारे सम्मुख
एकदम-सा हारा पाता हूँ
हे अपरूप सुन्दरी
तुम मेरा निवेदन
स्वीकार करो।“

तब हे माता
तुमने
उस राक्षस महाबली को
बुद्धि से
मात देने के लिए
अपनी इच्छा व्यक्त की
उस राक्षस से तुमने कहा
”बलीराज
जो तुम
मेरी छोटी-सी धारा को भी
अपनी ताकत से
समेट लोगे
मैं तुम्हारी हो जाऊँगी
मुझे इसमें क्या आपत्ति होगी
राक्षसराज
मैं तुम्हारी स्त्री
हो जाऊँगी।“
यह सुनते ही
वह राक्षस
खुशी से उन्मत्त
हो गया
और बाँधना शुरू किया
तुम्हारी धारा को
लेकिन हे कोशी माँ
तुम्हारी धारा को
कैसे समेट सकता वह
आकाश को
अपनी बाँहों में
कौन भर सका है
कौन सम्पूर्ण धरती को
अपनी गोद में
उठा पाया है
देवताओं को छोड़ कर
किसी मनुष्य के वश की बात
यह हो ही नहीं सकती
हे कोशी माँ
तुम धरती पर
भगवती माँ ही तो हो
किसी राक्षस की क्या ताकत
कि वह
समेट सके तुम्हारी माया
समेट सके तुम्हारी आभा।

तुम्हारे रूप की माया में
पड़-पड़ कर
गँवाये हैं
राक्षसों ने
अपने प्राण
धरती को
दिलाया है तुमने त्राण
हे भगवती कोशी माँ
जैसे-जैसे
तुम्हारी धारा को बाँधने के लिए
उस राक्षस ने
अपनी ताकत
और देह को बढ़ाया था
तुम भी हे कोशी माँ
बढ़ाती गई थी
वैसा ही अपना वेग
वैसे ही विस्तर से
राक्षस समा गया था
तुम्हारी रेत की पेटी में
लेकिन हे कोशी माँ
आज भी तुम्हारा
क्रोध शांत कहाँ हुआ है
आज भी तुम वैसी ही खल-खल
बही जा रही हो।