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कोशी के तीरेॅ-तीरेॅ / भाग 3 / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय / अमरेन्द्र

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गाँव के मल्लाह
कितने-कितने मनाउन
कि हे कोशी माता
तुम लौट जाओ अपनी ससुराल
अपनी लहरों को समेटे
उस समय तुम
बस यही कहती हो
कैसे लौटूँगी मैं
बहुत दिनों के बाद
आई हूँ मैं अपना नैहर
मैं सातों बहन
अपनी माता के यहाँ
एक ही तो है माता का द्वार।

हे कोशी माता
नैहर तक आने से पहले
तुम सातो बहन
अलग-अलग ही चलती हो
एक बहन-इन्द्रावती
दूसरी-स्वर्ण कोशी
तीसरी-तामा कोशी
चौथी जो होती है माँ
वह है-लिक्षु कोशी
पाँचमी बहन तुम्हारी
खलखल करती है
अरुण कोशी
छठवीं बहन है तुम्हारी
तस्पूर कोशी, हे माता
और सातवीं बड़ी बहन
तुम ही तो हो माँ
हे महाकोशी

खोल देती हो बंधन
सभी महारासों के
तुम
सावन के बीतते-न-बीतते
तुम्हें क्या मालूम
कि तुम्हारे इस महारास के कारण
क्या गुजरता है
तुम्हारी बेटियों पर
तुम्हारे बेटों पर
और
तुम्हारे ही बेटे-बेटियों के
लाखों-लाख बच्चों पर
घर से उजड़े
बेघर हुए तुम्हारे बेटे
रख आते हैं
अपनी-अपनी स्त्रियों को
किसी साहू-सामन्त की ड्योढ़ी पर
यह सोच
कि अपने-अपने पेट तो
भर सकेगी
बेच आते हैं
अपने गोदेले बच्चों-से
अपने बच्चों को
किसी धनिक के यहाँ
और फिर शुरू होती है
एक अनन्त यातना
बाल-मजूरी की।

बचपन ही नहीं बीतता है
जवानी तक
बीत जाती है कोशी के बुतरुओं की

किसी की टहलुवायी करते-करते
और नहीं तो
ढेर के ढेर
अंगुत्तराप के ये नौनिहाल
जीवन काटते हैं
नेपाल
कोलकाता
उत्तर प्रदेश
की ईंट-भट्टों में
बड़ी-बड़ी फैक्टरियों में
या फिर
कालीन के कारखानों में
जिन्हें पीना था
कोशी का पानी
खेलना था कोशी की माँटी पर
जिन्हें खाना था
कोशी की उपज
वे खाते हैं-धुआँ
पीते हैं-धुआँ
खेलते हैं
घोर अंधकार के संग
बची हुई जिन्दगी में।

क्या तुम
यह नहीं जानती हो कोशी माँ
कि कितने-कितने कोशी-पुत्र
तुम्हारे ही कारण
छोड़ कर देश चले जाते हैं
कमाने के लिए परदेश
और फिर घूमकर
कभी नहीं आते हैं
अपनी माटी से बिछुड़े हुये लाल
रोती रहती हैं
उनकी स्त्रियाँ
आँखों में आस लगाये
ताकती रहतीहैं
उसी दिशा की ओर
जिस दिशा से गए हैं उनके पुरुष
न जाने उनकी आस
पुरेंगी, कि न पुरेंगी
उनके पुरुष लौटेंगे कि नहीं लौटेंगे
कि तुम्हारी वे बेटियाँ
कौन कह सकता कि आखिर में
रोते-रोते ही
माटी में ही कहीं
माटी बन कर रह जाती हैं।