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कोशी के तीरेॅ-तीरेॅ / भाग 4 / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय / अमरेन्द्र

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हे माँ, तुम ही सोचो
आखिर कहाँ से आते
उनके सुहाग
वे भी तो कहीं
परदेश में खटते-खटते
मर-खप जाते हैं
आँखों में
पत्नी, बेटा-बेटी के स्वप्न
लिए हुये
हे कोशी माता
यह सब अचानक ही हो जाता है
जिस समय तुम
झूमर खेलती रहती हो
अपनी सातों बहनों के संग
कौन रोक सकता है तुम्हें

कौन मना करे तुम्हें
रोकने से भी
मना करने से भी
किसकी बातें मानी हैं तुमने
जो आज किीस की मान लोगी
मेट देती हो तुम सपना
अपने ही बेटों के
अपने ही हाथों से
दीप बुझा देती हो
और कर लेती हो
सम्पूर्ण अंगुत्तराप को
अपनी ही काया में विलीन
ऐसा क्या
खेल-खेल में ही उन्मत्त होना।

उस वक्त, कोई नहीं
आता है
इस अंगुत्तराप को
बचाने के लिए
चारो दिशाओं से
गुहार होती रहती है
पुकार होती रहती है
दिल्ली के आकाश पर
बैठे हुये देवताओं की
मीटिंग चलती रहती है
तब तक
जब तक कि
सब कुछ खत्म नहीं हो जाता है।

वही बाँध-योजना
वही कागजी घोड़ा
दौड़ता है
दिल्ली के रेसकोर्स मैदन से लेकर
पटना के गाँधी मैदान तक
एक-एक घोड़े पर
हजारों-हजर सवारी
घोड़ा हाँफता रहता है
घोड़ा दौड़ता रहता है
न कहीं ओर
न कहीं छोर
सिर्फ
टापों की आवाजें
वे ही हिनहिनाहटें
जगह-जगह
घोड़े की लीद-ही-लीद
हे कोशी माँ
आज तुम्हरी इस माटीपर
कोई लव-कुश नहीं
जो रोक ले
इस घोड़े को
बाँध दे किसी जगहपर
एक बार
फैसला तो हो जाए
लेकिन फैसला नहीं होता है
कभी आये थे
भगवान विष्णु वराह बन कर
अब कोई भगवान
नहीं आता है
पृथ्वी को बचाने के लिए
हे कोशी माता
तुम्हारी जलराशि तो
अभी भी वैसी ही खलखल करती है
लेकिन
यह तो कभी भी नहीं
बताया मेरी माँ ने
कि तुमने कभी लिए हैं
पुराण काल में ही
अपनी सन्तान के प्राण
तो अब किसलिए
इतनी उग्र हो गई हो
मेरी दादी कहती रही
कि तुम्हारा ही रूप है-उग्रतारा
वह कभी भी नहीं रही थी उग्र
कभी भी नहीं माँगती थी बलि
तब आज किसलिए?

मेरे गाँववासी
सुन-सुन कर काँपते हैं
जब कोई कहता है
कि हे कोशी माता
तुम जगह-जगह
भगवती रूप में खड़ी
अब माँगती हो बलि
पहली बार तुमने माँगा था
-पाठा और बकरा
फिर तुमने माँगा-कद्दू और कोढ़ा
अब माँगती हो
आदमी की बलि
इसीसे तो
हे कोशी माता
तुम्हारी खलखल धार
जब-जब भी उमड़ती है
उन्मत्त हुई
तब न जाने
कितनी ही अपनी सन्तानों को
निगल जाती हो
हे भगवती कोशी
तुम काली माँ बनकर।

मेरी नानी तो
मुझसे यही कहती रही
कि पार्वती के कोश से
जब उनका रक्त
कोशी बनकर
बह गया था
तब पार्वती
हो गई थी-काली
और काली ही बनकर
हिमालय पर कहीं
विश्राम के लिए
चली गई थी।

हे कोशी माँ
तुम कब
हिमालय का आश्रय छोड़
आ गई अपना नैहर
कभी बागमती को भी छती
मिल गई
अंग देश के गले-गले।