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कोशी के तीरेॅ-तीरेॅ / भाग 5 / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय / अमरेन्द्र

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तभी से ही
यह अंगुत्तराप
जहाँ कभी वेद-काल में
बाँचते रहे मंत्र
बैठ कर वसिष्ठ
बैठ कर विश्वामित्र
बैठ कर ऋषि शृंग
जहाँ विश्राम मिलता
भगवान विष्णु को
मंदार का क्षीरसागर छोड़
आते रहे यहाँ
जहाँ रमता था
महादेव का मन
जगह-जगह बनता था विश्राम-स्थल
शिव जहाँ करते थे शयन
हे माता कुमारिके
कभी-कभी सोचता हूँ
कि आखिर तुम
रह-रह कर
इतनी कठोर हठात् ही क्यों हो जाती हो
कौन-सी इच्छा
तुम्हारी पूरी नहीं हुई
आखिर किस कारण तुम्हारा मन
हहरता है
उफनता है
खौलता है
रह-रह कर एक ही समय में
उसी माह में
हे कुमारिके कोशी माँ
अचरज भरी तुम्हारी माया
हाँ तुम तो अभी तक भी
कुमारी ही हो
और तुम्हारे पुत्र
अनगिनत-असंख्य
एक-से-एक बली

एक-से-एक दानी
एक-से-एक भक्त।
तुम्हारा ही बेटा था
लोरिक
जिसकी कहानी कहते-कहते
अभी भी नानी-दादी
अनजाने ही जवान हो जाती हैं
वैसा ही रक्त उमंगे भरने लगता है
वैसी ही ठस्से वाली बोली
और आँखों में वैसी ही चमक
दादा और नाना की
आँखों में अभी भी
पर्वत का पुरुषार्थ
जाग उठता है हठात ही
लेकिन
कहाँ है वह लोरिक
अंगुत्तराप का वह अखाड़ा
आज श्मशन-सा दिखता है
रोता है हरदिया
रोता है
तुम्हारे ही वक्ष पर
उदास पड़ी हुई पचरासी का डीह
जहाँ चरती थी
बाबा विशु की-
लाखों-लाख, नब्बे लाख गायें
अब विशु बाबा भी नहीं हैं
नहीं है वह बाघिन भी
जिसे औरत की जात जान कर
छोड़ दिया था बाबा ने
बह गई थी
बाबा की देह

दूध के समन्दर में
बह गई थी बाबा की माटी
हे कोशी माँ
तुम्हारी ही खलखल धारा में
नहीं दिखता है कोई
बाघिन भी नहीं
लेकिन गुर्राहटें
इधर-उधर गूंजती हैं अब भी
किसे और खायेगी
खा ही तो रही है
औरत-मर्द, बात-बच्चे
जिसे पाती है उसे ही
और बाबा विशु का वह बलिष्ठ बैल
वह भी तो नहीं दिखाता है
हाँ, बैल के ढकरने की आवाजें
गूँज रही हैं चारो दिशाओं में
किसे पुकारता है
यह उदास बियावान
कोशी के दूर-दूर
चाँदी से बने बालू पर
नहीं आयेंगे लौट के फिर
बाबा विशुरौत
कामधेनु गायें
कहाँ से आयेंगी
अब तो चारे के अभाव में
हे कोशी माँ
बेच आते हैं गायें
तुम्हारी ही सन्तानें
कसाय के हाथों
या फिर पड़ोसी देशों में
आदमी की अतड़ियों में पचने के लिए।

कितना बदल गया है
हे कोशी माँ
तुम्हारा यह आँचल
जो कभी स्वर्ग से भी बढ़ कर
पुनीत था
महर्षि शमीक के
जहाँ गूँजते थे मंत्र
और जहाँ गूँजते
महर्षि शमीक-पुत्र
ऋषि शृंग के वेद-मंत्र
पा कर जिनके आशीष
अवध तक निहाल हुआ
राजा दशरथ के
सूने-सूने आँगन में
गूँजी किलकारी
पर आज
नहीं हैं वे महर्षि शमीक
न तो वह ऋषि शृंग ही
बस आखेट करता है
आखेटक परीक्षित
जो जैसा मन होता है
करता है
उन्मत्त होकर
डाल देता है जिन्दा साँप
जिसके गले में चाहता है
उसी के
कौन विरोध करे
कौन शाप देगा
न साधक शमीक हैं
न वैसे तेजस्वी ऋषि शृंगी।