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कौन किसके साथी हैं कौन किसके माँ जाए / ज़ाहिद अबरोल

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कौन किस के साथी हैं, कौन किसके मांजाए
धूप बन के डसते हैं छांव में भी हमसाए

संगपुश्त सा अब मैं, सर छुपाए फिरता हूं
दस्त-ए-ज़ीस्त जाने कब, पत्थरों से भर जाए

कौन अब समझता है, शे‘र की लताफ़त को
लोग उसी से ख़ुश हैं जो, लय में ख़ूब चिल्लाए

मां के बोल मीठे थे, बाप भी था शर्मिन्दः
यह अना कहां जाने, कब, किसी को छोड़ आए

घूम फिर के आता हूं, फिर इसी बियाबां में
यह उदास सा कमरा, घर कहां से कहलाए

पीठ पर उठाए हूं, बोझ सारी दुनिया का
जी में है कि करवट लूं, और सब उलट जाए

दिल के वास्ते “ज़ाहिद” , एक ख़्वाब काफ़ी है
बेशुमार ख़्वाबों से, कौन इस को बहलाए

शब्दार्थ
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