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क्या खंडित आशाएँ ही हैं / अज्ञेय

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क्या खंडित आशाएँ ही हैं धन अपने जीवन का?
क्यों टूट नहीं जाता है धीरज इस कुचले मन का?
कहते हैं, घटनाओं की पहले घिरतीं छायाएँ-
क्यों नहीं मिलन-क्षण में ही फिर मेरा माथा ठनका?

1936