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क्या तर्ज़े-तबस्सुम है कि तहरीर लगे है / लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी
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क्या तर्ज़े-तबस्स्तुम है कि तहरीर लगे है
बदला हुआ तेवर मेरी तक़दीर लगे है
सैय्याद की इस तर्ज़े-तग़ाफ़ुल को तो देखो
ताके है इधर और उधर तीर लगे है
क्यों वक़्ते-सफ़र देख लिया प्यार से तुमने
हर तारे-नज़र पाँवों की ज़ंजीर लगे है
आँसू ली ज़बाँ कुछ नहीं ये ख़ुद ही ज़बाँ है
आ जाए रवानी पे तो तक़रीर लगे है
क्या तेरी जफ़ाएँ कहीं दम तोड़ रही हैं
क्यों जाद-ए-मंज़िल मुझे दिलगीर लगे है
सीधा तो करो तीर ये दिल है ये जिगर है
तिरछी हो अगर आँख तो क्या तीर लगे है
जिस ख़्वाब में होना था मुलाक़ात का वादा
वो ख़्वाब किसी ख़्वाब की ताबीर लगे है
होता नहीं ऐ ‘चाँद’ असर आह का उन पर
इस में कोई तक़दीर की ताख़ीर लगे है