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खंडित स्वप्न : एक सांध्य बिम्ब / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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        रेत पर
        उभरी हथेली
        और बिसरे नाम !
        आ गई फिर शाम !

तैरते जाते
हवा में
टूटते अनुबंध
जुड़ गया
परछाइयों से
अनकहा सम्बन्ध

        दे गया
        मौसम किसी
        भूकम्प का पैग़ाम !
        आ गई फिर शाम !

झाँकती
हर कोण से
मन की अस्वीकृतियाँ
ताज़गी को
रौंदतीं
बोझिल परिस्थितियाँ

        हो गए खंडित
        दिवस के
        स्वप्न सब अविराम !
        आ गई फिर शाम !