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ख़ुदकुशी : हर कोई ख़ुद को मारने पर उतारू है / बाबुषा कोहली

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(ज़िया खान को याद करते हुए)

कैसे कोई सत्तर दफ़ा चढ़े-उतरे जो
उम्र की सारी बारिशें नमक के टीलों में बदल जाएँ
कैसे कोई सत्तर गुरियों की माला पिरोए
जो उम्र के सारे बसन्त पानी की बूँदों में ढल जाएँ

ऊँची शाख से लिपटे रसीले अंगूरों के गुच्छे दरअसल बाग़ के माली की साज़िश है
वो इने-गिने ही रास्ते हैं जिन पर साँसे सरपट दौड़ती हैं
मौत हज़ारों-हज़ार तरीक़े से अपनी ओर रिझाती है

तुम आओ और समन्दर में ज़हर घोल दो
बादलों को एक ख़ाली इंजेक्शन दे दो कि पानियों के बूते कोई बच न जाए
तुम आओ और आग को भस्म कर दो
एक-एक लौ का गला घोंट दो कि रूह की अगन कभी भड़कने न पाए
तुम आओ और आसमान को चाक़ू से गोद दो
तारों को मार कर ज़मीन में गाड़ दो कि दुआ में कभी कोई हाथ न उठने पाए
तुम आओ धरती के चेहरे पर तेज़ाब फेंक दो
उसका पेट गोलियों से दाग दो कि दोबारा कभी वो बच्चा न जन पाए
तुम आओ और हवा के सीने में ख़ंजर घोंप दो
ऑक्सीजन क़ैद कर ताबूत में रख दो कि घिसटती हुई साँसों को कुछ तो सुकून आए

तुम आओ और बोज़ोन को अपनी मुट्ठी में मसल दो
कि दुनिया बचने की कोई गुंजाइश भी न बचे

वो इने- गिने ही रास्ते हैं जिन पर साँसें सरपट दौडती हैं
मौत हज़ारों-हज़ार तरीक़े से अपनी ओर बुलाती है

मैं भी मार्स पर लेटे-लेटे सारा अ-मंगल देखूँगी
साइंसदान सुर्ख़ रंग की कुछ तो भी वजह बताते हैं
एक रोज़ मेरे हाथ में भी एक धारदार ब्लेड था
और तुम ने कलाई पर आसमान बाँध दिया था
ढलती शामों की नसों में ओ' पॉज़िटिव चमकता है
मार्स की मिट्टी का रंग भी कुछ और गहराता जाता है

माना कि मेरी हथेली में मग़रिब नहीं है
पर सूरज है कि उँगलियों के बीच की दरारों में डूब जाता है

तो फिर मैं क्यों कर जियूँ
कि जब गाय पॉलीथीन खाती है
मछली ख़ाशाक खाती है
आदमी सूअर खाता है और औरत चबाती है अपना ही गुलाबी कलेजा

हर कोई ख़ुद को मारने पर उतारू है