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ख़ुद-फ़रोशी भी इक आदत है उबर जाऊँगा / नवीन जोशी

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ख़ुद-फ़रोशी भी इक आदत है उबर जाऊँगा,
एक दिन ख़ुद ही तराज़ू से उतर जाऊँगा।

मंज़िलों के ये तक़ाज़े, ये सफ़र, ये रस्ते
आख़िरश होना यही है कि मैं घर जाऊँगा।

वक़्त से टूट के ठहरा हुआ इक लम्हा हूँ,
तू गुज़ारेगा मुझे तो मैं गुज़र जाऊँगा।

गर मैं ने' मत हूँ तो आऊँगा तेरे हिस्से में,
और इल्ज़ाम हूँ तो तेरे ही सर जाऊँगा।

तेरी नफ़रत से मैं ख़ाइफ़ नहीं हूँ ऐ दुश्मन!
पर मुझे डर है तेरे प्यार से डर जाऊँगा।

ये न सोचूँगा मैं किस तरह जिया रो-रो कर,
क्यूँ कि सोचूँगा तो हँस-हँस के ही मर जाऊँगा।