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ख़ुद अपनी ही प्रतीक्षा में (अंधेरे में आईना और तुम) / वेणु गोपाल

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कमरे में तुम हो और आईना है।
तुम ही आदमक़द हो और आईना भी।
कमरे में अंधेरा है और तुम दोनों अंधेरे में हो।
फिर भी तुम उसके सामने खड़े हो क्योंकि उजाला
तुम्हारा जातीय अनुमान है।
तुम आइने को टटोलते हो, सहलाते हो और
इस तरह उसके ठंडे चिकनेपन को उंगलियों
के पोरों पर झेलकर भविष्य को भरोसे
के काबिल बनाते हो।
अंधेरे को बर्दाश्त करने की कोशिश में ख़ुद
को उसमें घुलाते हो लेकिन बार-बार
पूछते भी हो--'रात कितनी बाक़ी है?'

क्या रात की तरह खड़े रहोगे?
सुबह तक?
अगर सुबह नहीं हुई तो?
तुम्हारी सुबह?
तुम्हारे कमरे में?
तुम्हारे कमरे की सुबह नहीं हुई तो?

रचनाकाल : 12 जनवरी 1979