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ख़ुद को छिपाने की कोशिश में / शलभ श्रीराम सिंह

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ख़ुद को छिपाने की कोशिश में
ख़ूबसूरत यादों के ऊपर
रख लेते हैं लोग बेडौल-बदरंग यादें।
इच्छा में लगा लेते हैं आग
आग लगा लेते हैं भावना में
आस्था में आग लगा लेते हैं लोग

समर्पित शब्दावली के ऊपर
रख लेते हैं गुर्राहट से भरी बोलियाँ
फूलों में छिपी गोलियां निकलने लगती हैं
मुस्कुराहटों से।

स्पर्श का सुख लेती उंगलियाँ
आँखों में घुस जाने को तत्पर हो जाती हैं
खास तरह की गंध की अभ्यस्त नाक के
नथुने फड़कने लगते हैं अकस्मात्
रस में डूबी अनुभूति का पारा चढ़ जाता है अचानक
खुद को छिपाने की कोशिश में
पूरा सच कोई नहीं बोल पाता है कभी।


रचनाकाल : 1992 साबरमती एक्सप्रेस