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ख़ुशी से फोलें न अहल-ए-सहरा अभी कहाँ से बहार आई / फ़ारूक़ बाँसपारी

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ख़ुशी से फोलें न अहल-ए-सहरा अभी कहाँ से बहार आई
अभी तो पहुँचा है आबलों तक मिरा मज़ाक़-ए-बरहना-पाई

तिरे मुफ़क्किर समझ न पाए मिज़ाज-ए-तहजीब-ए-मुस्तफ़ाई
उसूल-ए-जोहद-ए-बक़ा के बंदे बुलंद है ज़ौक़-ए-ख़ुद-फ़नाई

ख़लील मस्त-ए-मय-ए-जुनूँ था मगर मैं तुम से ये पूछता हूँ
रज़ा-ए-हक़ की छुरी के नचे हयात आई की मौत आई

जो क़िल्लत-ए-सीम-ओ-ज़र का ग़म है तो आओ क़ैसर के जानाशीनो
तुम्हारी ख़ातिर ज़रा झुका दूँ मैं अपना ये कासा-ए-गदाई

बजा तिरा नाज़-ए-बे-नियाज़ी मगर ये इंसाफ़ भी नहीं
कि तेरी दुनिया में तेरे बंदे बुतों की देते फिरें दुहाई

नदीम तारीख़-ए-फ़तह-ए-दानिश बस इतना लिख कर तमाम कर दे
कि शातिरान-ए-जहाँ ने आख़िर ख़ुद अपनी चालों से मात खाई

चलो कि ‘फ़ारूक़’ मय-कदे में दिमाग़ ताज़ा तो पहले कर लें
फिर आ के अहल-ए-हरम को देंगे पयाम-ए-तजदीद-ए-पारसाई