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ख़ूबसूरत कविता / दिविक रमेश

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मैंने चाहा

एक ख़ूबसूरत कविता लिखूँ


हज़ार बाहों वाला

एक ख़ूबसूरत वॄक्ष

फलों से लद गया।


ख़ूबसूरत आँखों को

मटका-मटका कर

कुछ चिड़ियाँ

टहनियों पर

घिसने लगीं

चोंचें


वॄक्ष

धीरे-धीरे

एक ख़ूबसूरत जंगल का

हिस्सा बन गया


कोई समुद्री परिन्दा

गुपचुप

जंगल के कानों में

समुद्र का पता दे गया


कबीले का एक ख़ूबसूरत बच्चा

समुद्री लहरों को

बाहों में

समेटने

यात्रा पर निकल गया।


कुछ ख़ूबसूरत तेज़ रंग

दिशाओं से दिशाओं तक

गीले

पृथ्वी पर

नदियों-से

इधर-उधर

बहने लगे।


मैंने देखा

अंधकार का

एक काला

स्याह
पिण्ड

रोशनी की

हल्की

तीख़ी किरण से

बिंध गया


मैंने पाया

मैं ख़ुद

कैनवस पर

एक ख़ूबसूरत

पोर्ट्रेट

बन गया।