भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़्वाहिशों के हिसार से निकलो / फ़ज़ल ताबिश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़्वाहिशों के हिसार से निकलो
जलती सड़कों पे नंग पाँव फिरो

रात को फिर निगल गया सूरज
शाम तक फिर इधर-उधर भटको

शर्म पेशानियों पे बैठी है
घर से निकलो तो सर झुकाए रहो

माँगने से हुआ है वो ख़ुद-सर
कुछ दिनों में कुछ न माँग कर देखो

जिस से मिलते हो काम होता है
बे-ग़रज़ भी कभी किसी से मिलो

दर-ब-दर ख़ाक उड़ाई है दिन भर
घर भी जाना है हाथ मुँह धो लो