भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खांसते पिता / पवन चौहान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

     (1)
कई परेशानियों से जूझते
और खाँसते पिता
नहीं जाना चाहते अस्पताल
अस्पताल के नाम पर
देते हैं हर बार सबको एक ही जबाव
‘अपने हिस्से की सांसें
नहीं जाऊँगा छोड़कर यूं हीं’
...सब चुप
नहीं दे पाता कोई हल्का-सा भी जबाव
और एक पल के लिए छा जाती है उदासी
कौमा के बाद जितनी
हर बार

शायद पिता डरने लगे हैं अब
डाक्टरों के घड़ी-घड़ी किए जाने वाले
परीक्षणों से
वे नहीं पालना चाहते अब कोई
नई परेशानी
बूढ़े हो गए हैं वे
कई बिमारियों से लड़ते-लड़ते ताउम्र

बीड़ी के लंबे-लंबे कस लगाते हुए
खींचते रहते हैं धुआँ भीतर ही भीतर
और खांसी की हर खाँस को
बाहर निकालते हुए कहते हैं
‘लो निकल गई सारी बीमारी बाहर’

मुँह से निकलता धुआँ
हवा में फैलता हुआ

होता जाता है और भी गाढ़ा
काला, स्याह
और पिता फिक्रमंद
लेकिन बेफिक्र से होकर
भरते जाते हैं उसमें और गहरा रंग
परंतु नहीं जाना चाहते अस्पताल
...बस


      (2)
खाँसते पिता
संबल है हमारे लिए
और हमारी चेतना का सैलाब
उनका खाँसना देता रहता है हमें
सुरक्षा का आभास
दिन-रात
डराता रहता है
हमारे घर पर बूरी नजर रखने वालों को भी
वे ओजोन परत है हमारे लिए
और जिम्मेवारियों का अहसास दिलाती
एक आदर्श मूरत
हमारे लिए आने वाली
एक खुली सांस