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खाली घर में कबूतर / विपिन चौधरी

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पतझड़ के पीले पत्तों की मानिंद
खाली घर की दीवारों से
स्मृतियाँ किश्त दर किश्त झडती रहती हैं

अपने खालीपन से आजिज़ आ
सूना घर
दिन में कई बार
अपना जाल बाहर की ओर फेंकता है

घर को हाथ पर हाथ धर बैठना पसंद नहीं
वह सांसों की आवाजाही चाहता है
उसे अपने आँगन में पींग की हिलौर
छत पर पतंग
रात को सपने
और दिन में तीन बार जली रोटी की महक और जीरे की धांस चाहिए ही चाहिए

घर के खालीपन को कहीं से सूंघते-महसूसते हुए
कहीं दूर से पंख फैलाये
कबूतर का एक जोड़ा आकर
अपनी नयी गृहस्थी बसा लेता है

इंद्रधनुषी- बैंगनी- हरी कॉलर वाले में
टहलते -फुदकते हुए
कबूतर का यह जोड़ा
खाली घर की आत्मा को खंगालने में मसरूफ हो जाता है

खाली घर
नयी तरह की अनुभूति से तृप्त रहने लगा था
कि
एक दिन नए किरायेदार का छोटा बच्चा
घर का मुख्य दरवाजे के प्रवेश करते ही
कह उठता है
डैडी-मम्मी लगता है
अभी-अभी रोशनदान के रास्ते कोई पक्षी बाहर गया है

शुक्र है हम एक आबाद घर के बाशिंदे हुए
पिता मन के सुकून भरते हुए कह उठते हैं.