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खिंची हुई चहुँ ओर है / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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182
स्वाति -मेघ की बूँद हो , मैं चातक की प्यास।
अधर सुधा के पान की , प्रतिपल मुझको आस।
183
युगों युगों से हम खड़े, झोली लेकर द्वार।
हीरे मोती क्या करें, दो अँजुरी भर प्यार।
184
जीवन यह मधुमास हो, भरकर सातों रंग।
हर दिन लाल गुलाल हो, मिले तुम्हारा संग।
185
मैं तो तेरे दर्द -सा, हूँ तेरा ही रूप।
चैन छीनती है सदा, तेरे दुख की धूप।
186
आलिंगन में आ छुपो, निर्दय है संसार।
सारे दुख दे दो मुझे , मेरे पहले प्यार!
187
हिमगिरि से भी हैं बड़े , तेरे दुख के छोर।
कब आएगी द्वार पे, प्रिय के सुख की भोर।
188
खिंची हुई चहुँ ओर है, फौलादी दीवार
एकाकी इस पार मैं, तुम आहत उस पार।
189
डँसना छोड़ें ना कभी, विषधर जैसे लोग।
करके देखें हैं सभी, मन्त्र , औषधी ,योग।
190
मधुर भोर को ढूँढते तुझमें पागल नैन ।
साँझ हुई फिर रात भी, तरसे मन बेचैन।
191
चिड़िया पिंजर में फँसी, दूर बहुत आकाश।
पंख कटे स्वर भी छिना, पंजों में भी पाश।
192
धन, यश या अब स्वर्ग की, ना है मन में प्यास।
बाहों में भर लो हमें, बस इतनी अरदास।
193
भूल न पाया दो घड़ी , कैसे करता याद।
रोम -रोम मेरा रहा, तुमसे ही आबाद।।
194
घर बीहड़ जंगल हुआ,प्रिय का मन सुनसान।
तरस गए आवाज़ को , दिन भर व्याकुल कान।
195
तेरे बिन संसार में, कोई ना मेरा ठौर।
मुझसे लाखों हैं यहाँ, तुझसा हैं ना और।