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खुद से प्यार / संतोष श्रीवास्तव

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पहले
मेरा जिस्म चीखता था
आंसू
उंगलियों के पोरों पर
मेरे दुख का हवाला देते
मील का पत्थर
बन जाते थे
मैं खुद को कोसती
दुर्भाग्य में
गहरे गड़ जाती थी
अब मैं अपने जिस्म को
प्यार से सहलाती हूँ
उंगलियों से आंसू
फूलों पर छींट
शबनमी एहसास में
डूब जाती हूँ
कब का भूल चुकी हूँ
दुर्भाग्य को
अब वह भी तो मुझसे
डरने लगा है
मेरे एकांतवास में
अब एक भी
दस्तक नहीं है उसकी
अब हवाएँ
मेरे आस-पास ही
मंडराती
अपनी महक का
वास्ता दे मुझसे
लिपट जाना चाहती हैं
चारों ओर
सुंदरता का डेरा है
सब कुछ अपना सा
लगता है
कितना कुछ
बदल गया है
प्यार जो करने लगी हूँ
खुद से