भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुलने की सूरतें / मनोज कुमार झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस तरह न खोलो मेरी साँस
       कि जैसे कोई खोले दफ्तर से लौट जूते का फीता
खोल रहे हो तो खोल ऐसे
       कि जैसे माँ खोलती थी नींद तलाशने की पोटली

ताकतवर यूँ क्यों खोलता शब्द
       कि खिड़कियों के बदले खुल जाते इजारबंद1

इच्छाएँ क्यों खुली जा रही बचपन की उछाह की तरह
और समय क्यों खुल रहा अकाल के आकाश की तरह

दुनिया क्यों खुल रही महाजन की पंजी की तरह
और हम क्यों खुल जा रहे भिखियारों की हथेलियों की तरह

इस तरह न खोलें हमरा अर्थ
       कि जैसे मौसम खोलता है बिवाई
जिद है तो खोलें ऐसे
       कि जैसे भोर खोलता है कँवल की पँखुड़ियाँ।

1. मंटो की कहानी से संदर्भित।