भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुलने लगे हैं तोरण / शंख घोष

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: शंख घोष  » खुलने लगे हैं तोरण

 
यह चिट्ठी किसे लिखूंगा
मैं अभी तक नहीं जानता
लेकिन लिखनी ही पड़ेगी
लिखना पड़ेगा कि अब समय हो आया है
समेट लेने का समय...
अब उठना ही पड़ेगा
अब कोई काम नहीं कि जिसे अधूरा छोड़ सकें
नीचे झुककर पानी की छाया में देख लेने होंगे सभी चेहरे
सबके चेहरों पर है मेरी छाया
और मेरे शरीर में व्याप्त है
कितने लोगों, कितने दिनों का अविरल विश्वास।
कहाँ से आया था इतना सब? जमा रह गया...
इस बार लिखना ही पड़ेगा।
लिखना ही पड़ेगा कि मैं भी हूँ
मैं भी हूँ तुम्हारे साथ हाथ मिलाने के लिए
और जिसे लिखूँगा उसने भी शायद अब आना शुरू कर दिया है
स्वप्न में खुलने लगे हैं
खुलने ही लगे हैं रास्तों पर बने हुए तोरण।


मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी