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खुला घाव / शिरीष कुमार मौर्य

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मैं खुला घाव हूँ कोई साफ़ कर देता
कोई दवा लगा देता है
मैं सबका आभार नहीं मान सकता
पर उसे महसूस करता हूँ
सच कहूँ तो सहानुभूति पसन्‍द नहीं मुझे

खुले घाव जल्‍दी भरते हैं
गुमचोटें देर में ठीक होती हैं
पर खुले घाव को लपेट कर रखना होता है

मैं कभी प्रेम लपेटता
कभी स्‍वप्‍न लपेटता हूँ कई सारे
कभी कोई अपनी कराहती हुई कविता भी लपेट लेता हूँ
लेकिन हर पट्टी के अन्दर घुटता हुआ घाव तंग करता है
वह ताज़ा हवा के लिए तड़पता है

प्रेम, स्‍वप्‍न और कविता ऐसी पट्टियाँ हैं जो लिपट जाएँ
तो खुलने में दिक़्क़त करती हैं
मैं इनमें से किसी को नुक़सान नहीं पहुँचाना चाहता
पर घाव के चीख़ पड़ने पर इन्‍हें जगह-जगह से काटकर
खोल देना पड़ता है

खुला घाव खुला ही रहना चाहता है
खुला घाव तुरत इलाज चाहता है अपने में बंधा रहना नहीं चाहता
गुमचोटों की तरह बरसों टीसना नहीं चाहता
उसकी ओर से मैं क्षमा माँग लेता हूँ --
ओ मेरे प्रेम !
हे मेरे स्‍वप्‍नों !!
अरी मेरी कविता !!!

बना रहे प्रेम पर घाव को न छुपाए
बने रहेंगे मेरे स्‍वप्‍न सही राह चले तो झूटे आवरण नहीं बन जाएँगे
उघाड़ेंगे ही मुझे भीतर तक
बनी रहे कविता लगभग जैसी वह जीवन में है विकल पुकारती

यह खुला घाव खुला घाव ही है
बस कीड़े न पड़ें इसमें
वे जब ख़ूब छक चुकने के बाद भी
आसपास बिलबिलाते हैं
तो उनकी असमाप्‍त भूख मैं महसूस कर पाता हूँ

उनका जैविक आचरण रहा है मृत्‍यु के बाद देह को खा जाना
पर अब जीवन भी उनकी भूख में शामिल हैं
विचारहीन मनुष्‍यता उनका सामना नहीं कर सकती
वह जीवित रहते खा ली जाएगी

खुले घाव और बिलबिलाते कीड़ों के इस जुगुप्‍सा भरे प्रसंग में
मैं अपनी कोई चिन्‍ता नहीं करता
अपनी चिन्‍ता करना अपनी वैचारिकी के खिलाफ़ जाना है

लगातार लगते घावों से ही अब तक जीवन कई भटकावों से बचा है
कुछ और सधा है
मेरे अपनो
आश्‍वस्‍त रहो

मेरा होना एक खुला घाव तो है
लेकिन विचारों से बँधा है ।