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खून-सना वट-बीज / तरुण

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इन दिनों मुझे दिख जाता है
सड़क पर रिक्शा चलाता एक आदमी।

पहने आधी फटी-सी लीरालीर बनियान, कमीज, कच्छा,
जैसे, खुदाई में से निकला मजबूत इरादेदार एक चेहरा, चुप्पी-सधा,
ओठ बुदबुदाता-सा, पतली-पतली टाँगे-लगातीं लापरवाह पैडल,
आँखें-जैसे पहाड़ी टनल में ट्रेन, लगाती-सी व्हिसल।

दाढ़ी के जंगलात में छिपे से हों जैसे कुछ मानवी सरोकार, गहरे वादे।
जिसमें जैसे कोई शऊर नहीं, उसमें छिपे हैं-
युगान्तरी सांस्कृतिक इरादे!
खून में कुछ हरारत-सी
नापाक मनुष्यता पर-
जैसे, बुलाता-सा कुछ शामत-सी!

तवे-सी लू-गरमी में देखता-सा निकल जाता
एक बगीचानुमा कोठी, गैराज,
आँखें आगाह-सी जैसे कर जाती हों-
‘सावधान, गिरेगी गाज।
भवन गिरेंगे-धड़ाम, धड़ाम,
चारों ओर होगी-‘हाय, राम।’
लगती थी मुझे रिक्शे वाले की पसीना-सनी कमीज-
जैसे, भावी काले-मटियाले तूफ़ान का हो एक खून-सना वट-बीच!

1986