भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खेल / ब्रजेश कृष्ण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे कहते हैं:
तुम्हारे सोचने से कुछ नहीं होगा
मैं कहता हूँ:
मैं जानता हूँ, मगर मैं सोचूँगा
वे कहते हैं:
तुम्हारे कहने से कुछ नहीं होगा
मैं कहता हूँ:
मैं जानता हूँ, मगर मैं कहूँगा
वे कहते हैं:
तुम्हारे लिखने या लड़ने से कुछ नहीं होगा
मैं कहता हूँ:
मैं यह भी जानता हूँ,
मगर मैं लिखूँगा और लडूँगा

मेरे और उनके बीच
बरसों से चल रहा यह खेल
महज़ खेल नहीं है
उनका यह कारगर
और पंसदीदा औज़ार है
धीरे-धीरे और नामालूम तरीके़ से
हत्या करने का

और मुझे अब भी पकड़ कर रखना है
हर हाल में
जो कुछ बचा है मेरे भीतर
रौंदे जाने के खि़लाफ़।