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खोये हुए बचपन के लिए एक कविता / प्रकाश मनु

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बचपन मेरे लिए/अलस्सुबह
अलसाई धुंध से निकलकर-किसी चमत्कार की तरह
चौका लीपती
अंगीठी सुलगाती
स्कूल भेजने से पहले "पुत्तर....पुत्तर" कह
चुमकारती
मां का चेहरा है-

बचपन
भागते अटपट कदमों के नीचे
ऐ बेछोर रास्ता है-रास्ता
वह धूल-आंधियों भरा।
जिसमें विचित्र मोड़ हैं और रहस्यम पगडंडियां...
खटमिट्टी बेरियों और इमली के कंताड़ों की तरह आड़ी-तिरछी।
और मैले कपड़ों वाले बेपरवाह दोस्त
जिनकी फूली-फूली ठसाठस भरी होती थी हर वक्त
लाल-पीले फीते, रिबन, चूड़ी के टुकड़ों
और सुनहरे पत्थरों से...
या फिर अजब-सी कोई पत्ती
कोई फूल-(रोशनियों में नहाया।)
तिरछे, गोल कटे टुकड़े कागज के-
जो कुछ हमें पसंद आता
चुपचाप
हमारी तिलिस्मी जेबों में सरकता चला जाता...

बचपन से बड़ा जादूगर शायद कोई और नहीं।
बचपन मेरे लिए
खट्‌मिट्ठी इमली का स्वाद
नीम की निबोलियों की महक है...
या फिर जेबों में ठुंसी ढेर-ढेर मूंगफलियां
जिन्हें हम फोड़ते खाते ठहाके मारते
काटते थे वक्त...
और छिलकों से भर देते थे पगडंड़ियां-
और कभी खत्म ही नहीं होती थी पगडंड़ियां न मूंगफलियां।

बचपन दरअसल एक हरा समंदर है
एक सुनहरी आग
और एक दुनिया...
जिसमें न दरवाजे है
न दीवारें
सिर्फ उड़ान है? उड़ान-सात हाहाकारते समंदरों पर

बचपन अभी गया नहीं
लेकिन मैं
उससे दूर आ गया हूं-इस कदर
कि जब कभी लौटना चाहा है उन झाऊ के जंगलों में
जब कभी धूलसने बालो वाले उस निरे गाउदी बच्चे का चेहरा
टटोलना चाहा है उंगलियों से
जब कभी चिड़िया की आंखों में बसे
वत्सल सपने

का अर्थ ढूंढ़ना चाहा है
तब-तब
मैं हारा हूं
और मेरी इस कोशिश
के साथ
मेरी हास्यास्पदता और बढ़ी है

कुछ नहीं होता
हमारी दुनिया में अब-
कुछ नहीं हो सकता ...

सिर्फ पलस्तर चेहरे का तड़कता है क्षण भर-
किसी पीले उदास खंडहर के दरवाजे
पर खड़ा
कुत्ता आकाश की ओर मुंह उठाए
घुरघुराता है

सूने एकांत में
नीम की डाल पर बैठी गोरैया
पंख फड़फड़ा कर उड़ जाती है
और मैं महसूस करता हूं
मेरे सिर पर रखी एक मैली-कुचैली गठरी
का बोझ

और बढ़ गया है
और भीतरी एहसास की भाषा
और बोदी हो गई है।

तब मैं कुछ नहीं कहता
कुछ नहीं करता-
बेतरह सख्ती से होंठ भींचे
पैरों में ठुंकी भारी जंजीरों के साथ
आगे बढ़ जाता हूं-
टूटा, थका, निरूपाय।