भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खोलो तो द्वार / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / प्रयाग शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खोलो तो द्वार, फैलाओ बाँहें
बाँहों में लो मुझको घेर
आओ तो बाहर, बाहर तो आओ
अब कैसी देर

निबटे हैं कामकाज, चमका ये संध्या का तारा
डूबा आलोक वहाँ सागर के पार अरे,
डूबा है सारा-का-सारा
भर भर के कलशी , छलकाई कैसी
ओढ़ा है कैसा दुकूल

देखूँ तो माला, गूँथी है कैसी,
केशों में है कैसा फूल
लौटी हैं गायें, पाखी भी लौटे
लौटे हैं वे अपने नीड़
पथ जितने सारे, सारे जगत के,

खोए, अन्धेरे में डूबे
देना मुझे मत फेर

मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल