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ख्‍़वाबों के लिए हैं न किताबों के लिए हैं / नवनीत शर्मा

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ख्‍़वाबों के लिए हैं न किताबों के लिए हैं
हम रोज़-ए-अज़ल से ही अज़ाबों के लिए हैं
 
चलते भी रहें और न मंज़िल नज़र आए
हम अपने ही अंदर के सराबों के लिए हैं
 
खेतों में जुटे लोग सवालों की तरह हैं
संसद में जुटे लोग जवाबों के लिए हैं
  
क्‍या जाने कहां कौन सी सूरत नज़र आए
इस दिल के कई चेहरे नकाबों के लिए हैं
 
ख़ुश्बू ही कहाँ, ज़िक्र भी गुम हो गया तेरा
सब याद के पिंजर तो उक़ाबों के लिए हैं
 
रास आ गया अब हमको भी सन्‍नाटे में जीना
हम याद के वीरान ख़राबों के लिए हैं